आचार्य विद्यासागरजी के जन्मदिन पर विशेष:कर्नाटक में जहां बचपन बिताया वह घर अब म्यूजियम; भाई बोले- बचपन में कैरम, शतरंज का शौक था

पुनीत जैन3 वर्ष पहले
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जैन आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज शरद पूर्णिमा पर अपने जीवन के 75 वर्ष पूर्ण कर रहे हैं। 75वें अवतरण दिवस पर उनके अनुयायियों द्वारा अलग-अलग शहरों में कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। आचार्यश्री के 75वें जन्म दिवस पर दैनिक भास्कर के रिपोर्टर पुनीत

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सद्लगा की आबादी करीब 35 हजार है। यहां करीब 850 जैन परिवार हैं और 5 जैन मंदिर। आचार्य श्री की प्रेरणा से एक गौशाला और एक हथकरघा केंद्र भी संचालित हो रहा है। सद्लगा में ही आचार्य श्री का घर है। उन्होंने यहां जन्म से लेकर 20 साल व्यतीत किए।

जमीन बेचकर नया घर बनाया श्रद्धालुओं ने उस घर को एक छोटे से संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है। इसी के ऊपर भगवान शांतिनाथ का मंदिर भी बनाया गया है, जिसका पंचकल्याणक 2003 में हुआ। अपना घर संग्रहालय और मंदिर के लिए दान देकर आचार्य श्री के गृहस्थ जीवन के बड़े भाई महावीर अष्टगे ने दूसरी जगह नया घर बना लिया है। इसके लिए उन्हें 3 एकड़ जमीन बेचनी पड़ी।

बड़े भाई से जानिए, विद्यासागरजी का बचपन... महावीर अष्टगे बताते हैं, 'जब विद्याधर छोटा थे, हाथों के बल घिसटने लगे, तब अक्का (मां) उसको प्यार से पिल्लू कहकर बुलाती थीं। दक्षिण में छोटे बच्चों को प्यार से पिल्लू कहते हैं। वह जन्म से ही परिवार और पड़ोसियों के लाडले थे। जो भी उन्हें देखता, वो विद्याधर को खिलाए बिना नहीं रहता। दिनभर कोई न कोई उसे गोदी में उठाकर प्यार करता ही रहता था। पड़ोसियों ने प्यार-प्यार में उन्हें गिनी कहना प्रारंभ कर दिया था।

गिनी शब्द कन्नड़ भाषा का है, जिसे हिंदी में तोता कहते हैं। जब वह नौवीं में थे, तब विनोबा भावे हमारे गांव के पास भू-दान आंदोलन में आए थे। दोस्तों के साथ वे भी साइकिल से गए। दोस्त तो सर्कस देखने लगे, लेकिन वे विनोबा भावे को सुनने गए। वहां से आने के बाद स्कूल जाना बंद कर दिया। पिताजी और शिक्षकों ने डांटा, तो कहा कि हमारी लौकिक शिक्षा जितनी होनी थी, हो गई। विनोबा जी दूसरों के लिए अपना जीवन लगा रहे हैं। मैं भी उन्हीं की तरह दूसरों के लिए कुछ करूंगा। उसके बाद उनका मन परिवर्तित हो गया।'

कैरम और शतरंज का शौक आचार्यश्री को बचपन से कैरम एवं शतरंज का शौक था। भाई कहते हैं कि वे शतरंज में बड़ों को भी हरा देते थे। जब कभी हार जाते तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करते। फिर दोबारा जीतकर ही मानते थे। विद्याधर जब 13-14 साल के थे, तब मेरे साथ खेत पर जाते थे।

अष्टगे बताते हैं कि खेत में काम करने वाला एक व्यक्ति घोड़ा लेकर आता था। उसका घोड़ा देखकर विद्याधर उस पर बैठकर धीरे-धीरे घुड़सवारी भी सीख गए। जब विद्याधर 15 वर्ष के हुए, तो वाचनालय में जाकर महापुरुषों की आत्मकथाएं पढ़ते थे। फिर घर आकर सभी को सुनाते थे। उस जमाने में रेडियो नया-नया आया था।

महावीर अष्टगे बताते हैं कि विद्याधर आकाशवाणी, ऑल इंडिया रेडियो और बीबीसी लंदन स्टेशन के समाचार सुनते थे। आखिर में राजस्थान में उनकी मुनि दीक्षा हुई, वे विद्यासागरजी हो गए। इसके बाद परिवार के छह अन्य सदस्य भी वैराग्य पथ पर अग्रेषित हो गए। भारत भर से लोग आकर घर की मिट्टी यह कहकर ले जाते थे कि जिस घर पर विश्वगुरु ने जन्म लिया वह बहुत पवित्र है। फिर दिल्ली के कुछ लोगों ने यहां मंदिर बनाने के लिए प्रेरित किया।

सद्लगा किसी तीर्थ से कम नहीं सद्लगा निवासी कुमार आदपा संभोजे बताते हैं कि पौराणिक जैन शास्त्रों में सद्लगा का कोई विशेष उल्लेख तो नहीं है, लेकिन आचार्यश्री के भक्तों के लिए अब यह किसी तीर्थ से कम नहीं है। दक्षिण भारत की ओर आने वाला उनका हर अनुयायी एक बार उनकी जन्मस्थली को देख यहां की पावन माटी को अपने मस्तक पर लगाना चाहता है।

पिछले करीब 20 साल से आचार्यश्री के पुराने घर (अब संग्रहालय) और मंदिर की साफ-सफाई की जिम्मेदारी देख रही ताई सुंदरा बाई पाटिल बताती हैं कि वैसे तो पूरे भारत से जैन श्रावक यहां आते हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या उत्तर भारत (विशेषकर मध्यप्रदेश और राजस्थान) के श्रद्धालुओं की होती है।


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